नया इंडिया , FEBRUARY 9TH, 2016


संघ परिवार का विचार संकट

कुछ दिन पहले की बात है। भाजपा के संघ प्रभारी कृष्ण गोपाल ने पत्रकारों-संपादकों को बुलाया। मुद्दा दलित नाम पर संघ परिवार की बदनामी के प्रतिवाद का था। कोई 18-20 लोग थे। इनमें लिखने वाले मुश्किल से तीन-चार। एक-दो दिन बाद भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल ने भी दलित पर बदनामी की चिंता में इन्ही निराकार 15-20 चेहरों से बात की। ऐसी एक बैठक सालों पहले रामसेतु के विवाद के वक्त हुई थी। तब के बाद अब और उसमें भी कुल जमा दो दर्जन निराकार चेहरे। जाहिर है संघ-भाजपा की भले केंद्र और राज्यों में सरकारें हों लेकिन न बौद्धिकजनों का साथ है, न थिंक टैंक है, न विचारवान विमर्श है और न ही प्रचारक इसकी जरूरत समझते हैं!

अपना मानना है कि बौद्धिक पहलू में हिंदू राष्ट्रवाद लावारिस और बिना सिर के है। वजह कई हैं। आरएसएस 90 साल पुराना संगठन है। डा. हेडगेवार ने ‘हिंदू’ की चिंता में संगठन बनाया। वह वक्त क्योंकि गांधी, कांग्रेस का था। हिंदू महासभा, सावरकर के अंग्रेजों से टकराव का था इसलिए इन सबसे बचते हुए डा. हेडगेवार ने संगठन को राजनैतिक रूप नहीं दिया। सबसे डरते हुए, अपने को बचाते हुए संघ पर सांस्कृतिक संगठन का चोगा डाला। यदि राजनैतिक संगठन कहते, राजनीति की बात करते तो चौतरफा मुश्किल होती।

आजादी के बाद हालात सामान्य हुए तो संघ ने जनसंघ बना कर राजनीति में परोक्ष कदम रखा। मगर चोगा फिर भी सांस्कृतिक जबकि मूल में भी मिशन राजनैतिक था। इतिहास की जिस हिंदू हूक में डा. हेडगेवार ने सोचा था उसकी प्रकृति राजनैतिक थी। लेकिन गुलामी के हिंदू जिंस की बुनावट में राजनैतिक तलवार उठाने की हिम्मत नहीं थी तो साधू-संन्यासी बनने याकि सांस्कृतिक प्रचारक का चोगा धारा।

सो संघ परिवार का संकट यह है कि राजनीति के लिए विचार, विचारधारा, संकल्प, रोडमैप तथा नेहरू के आईडिया आफ इंडिया के विकल्प में जो वैकल्पिक विचार, दर्शन, रोडमैप बनना था वह कुछ नहीं बना। आखिर संघ ने अपने को जब सांस्कृतिक जुमले में बांधा है तो वह कैसे राजनैतिक विचारधारा गढ़ सकता है? न सावरकर के विचार दर्शन पर काम हुआ और न डा. लोहिया जैसा अपनी भाषा में, अपने परिवेश में विचारसूत्रता देने का कोई सिद्धपुरुष पैदा किया। मेरा मानना है कि नेहरू के आईडिया आफ इंडिया के विकल्प में हिंदू के मौलिक राजनैतिक चिंतन में डा लोहिया बेजोड़ होते यदि वे समाजवाद में घेरे में बंधे न होते।

बहरहाल, संघ परिवार ने सांस्कृतिक चोगे में राजनैतिक विचार, वैकल्पिक हिंदू मॉडल न तो सोचा और न उसकी उसे जरूरत महसूस हुई। तभी जनसंघ व भाजपा के इतिहास में विचारधारा हमेशा भटकी रही। कभी वह श्यामाप्रसाद का एक नारा था तो कभी दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवतावाद का जुमला या कभी वाजपेयी का गांधीवाद-समाजवाद तो कभी स्वदेशीवाद तो कभी शाईनिंग इंडिया में हल्ला तो कभी मोदी का मॉडल।

यह सब नेहरू के आईडिया आफ इंडिया की प्रतिछाया है। संघ परिवार ने गांधी-नेहरू को अनचाहे, अनबूझे, अधकचरे अंदाज में अपनाया है। सांस्कृतिक आवरण में संघ का बौद्धिक पिलपिलापन ऐसा बना कि अंग्रेजी में जुमले गढ़ने वाले लालकृष्ण आडवाणी भी विचारक हो गए। राममंदिर से जिन्ना तक के एक छोर से दूसरे छोर के पेंडुलम में भाजपा धूमती रही। आडवाणी हों या वाजपेयी व इनके साथ के जसवंत सिंह, बृजेश मिश्र और अब अरुण जेटली सब नेहरू के आईडिया आफ इंडिया, उससे पनपी दिल्ली की इनसाइडर जमात की राजनैतिक संस्कृति, मिजाज और सिस्टम को लिए हुए है।

एक मायने में संघ में बौद्धिकता इसलिए पोषित नहीं हुई क्योंकि नेहरू के आईडिया आफ इंडिया, धर्मनिरपेक्षता के सरकारी प्रश्रय में खाए-पिए बुद्धिजीवियों ने संघ परिवार को इतना धो-धो कर बदनाम किया कि उससे घायल आरएसएस की बुद्धि और बुद्धिजीवियों से ही एलर्जी बन गई।

मैं भटक रहा हूं। पते की बात यह है कि नेहरू के आईडिया आफ इंडिया से अलग राजकाज देने का संघ परिवार का हिंदू राष्ट्रवाद संकल्प धूल में लठ है। वह उसी सिस्टम के भरोसे है जिसे अंग्रेज-नेहरू बना गए थे। इस दर्शन, सिस्टम की बुनावट का स्थाई तत्व यह है कि संघ परिवार सांप्रदायिक है। दकियानूस है और प्रतिगामी है। यही भारत सरकार के 99 प्रतिशत अंग्रेजीदां सचिव, व्यवस्था के अलग-अलग अंगों के लोग सोचते हैं। पर मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी ठीक विपरीत मानते हैं कि ये उनकी सोच याकि जुमलों का हिंदू राष्ट्र बनवा देंगे!

ऐसा हो नहीं सकता। इसलिए कि संघ परिवार में विचारों की उर्जा नहीं है। वह ताकत नहीं है जिससे चुंबकीय बंधन बने और पुरजोर ताकत लग जाए। उलटा है। उत्सव संघ की सत्ता का है लेकिन उसमें बेगाना अब्दुला खुद आरएसएस बना हुआ है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के पास, सबसे बड़े हिंदू संगठन के पास, सर्वाधिक महाबली प्रधानमंत्री के पास बीस अच्छे बौद्धिक भी नहीं हैं!

तभी सबकुछ रक्षात्मक है। दरअसल संघ का सांस्कृतिक संगठन की झीनी आड़ में छिपा रहना भीरुता, बौद्धिक दिवालिएपन व गुजरे वक्त में रहने का भी प्रमाण है। इसी के असर से संघ के लोग सोच, कर्म व अपने सिद्धांत को ले कर हीनता में रहते हैं। हां, संघ पदाधिकारी, भाजपा नेता या सार्वजनिक स्पेस में उनकी तरफदारी करने वाले तमाम बुद्धिजीवी खुल कर किसी मसले पर वैसे स्टैंड नहीं ले पाते हैं जैसे वामपंथी या समाजवादी विचारक खम ठोंक कर बोलते हैं। अपने को वामपंथी, प्रगतिशील बताते हैं। संघ, भाजपा का कृपा पाया कोई कथित विचारक अपने को संघी,दक्षिणपंथी, हिंदूवादी कहने की हिम्मत नहीं करेगा। यदि किसी ने उसे ऐसा कह दिया तो पैरोकार अपने को डिफेंड करने लगेगा। यह कमजोरी आरक्षण पर हुई बहस से लेकर दलित विमर्श, इतिहास की किताबों में बदलाव, शिक्षा पद्धति में सुधार, समान नागरिक संहिता और मंदिर जैसे सब मुद्दों में सब जगह जाहिर होती है।

हरि शंकर व्यास