सोनिया बनाम संघ के दो साल

भारत विकट मुकाम पर है। इसलिए कि वे सब आज बेचैन हैं जो मई 2014 के नेतृत्व परिवर्तन में निमित्त थे। मतलब वे लोग जो हिंदू शब्द में राष्ट्रवाद, सांस्कृतिकवाद, भावनात्मक, सामाजिक, राष्ट्र-राज्य अर्थ बूझते हैं। यह जमात विशाल है। देश-विदेश का यह विशाल जनसमूह आज जिस मनोदशा में है उसमें संतोष कम है और बेचैनी अधिक। इस हिंदू आकांक्षी समूह का नरेंद्र मोदी, भाजपा व संघ परिवार महज एक हिस्सा है। इस हिस्से का क्या होगा, यह चिंता नहीं है लेकिन हिंदू का क्या होगा, यह बड़ा सवाल है।
इसलिए कि संघ कुनबा इस जनसमूह के दो टूक बहुमत, प्रचारक प्रधानमंत्री के बावजूद यदि सत्ता से वाहवाही नहीं बनवा पाता है तो हिंदू व हिंदू राजनीति आगे सैलाब में ऐसे बुरी बहेगी कि तब फिर सिर्फ ठुकाई है। आज परिणाम हवा में है और प्रभाव, आभा व दबदबा गायब हुआ जा रहा है। ताजा प्रमाण आजम खां का बयान है कि मोदी पाकिस्तान में दाऊद से मिले! ऐसा कहने की हिम्मत हुई है तो अर्थ है विरोधी शेर हो गए हैं।
उस नाते अपनी समग्रता में निकलती थीसिस यह है कि हिंदू को राज करना नहीं आता। मैं मोदी, संघ से आगे हिंदू इतिहास, उसके डीएनए पर विचार करने लगा हूं, लिखने लगा हूं।
बावजूद इसके मई 2014 के परिवर्तन की निमित्त संस्था आरएसएस के आज के मुकाम पर विचार जरूरी है। संघ को बेचैन होना चाहिए। यों अपने को कई कहते हैं कि संघ बेफिक्र है। संघ पदाधिकारी परम पद के सत्ता वैभव में मगन हैं। फुरसत कहां जो बेचैन हों! पर क्या ये समसामयिक दृष्टि लिए हुए नहीं होंगे? क्या इनके कान में पिछले 20 महीनों का यह हल्ला नहीं गया होगा कि संघ, हिंदू फ्रिंज एलीमेंट देश को बरबाद कर दे रहे हैं। धर्मांतरण, लव जेहाद, हिंदुत्व, गौमांस, भगवाकरण, असहिष्णुता, आरक्षण, महिला अधिकार, दलित-अल्पसंख्यक की तमाम बातों, खबरों में संघ को जैसे पुरातनपंथी, मनुवादी, असहिष्णु-असंवेदक बताया गया है क्या उससे मोहन भागवत विचलित नहीं हुए होंगे?
एक के बाद एक ऐसे बतंगड़ हैं कि न पलटवार की हिम्मत और न जवाब देते बन रहा! काम और एजेंडे पर अमल का तो सवाल ही नहीं। इस स्थिति की 2004 में मनमोहन सरकार बनने के बाद सोनिया गांधी के दबदबे से तुलना की जाए। तब सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनवाई। अपनी पसंद के, अपनी विचारधारा के लोगों को एनएसी का सदस्य बनाया। एनएसी से सरकार का एजेंडा तय करवाया। सोनिया गांधी ने एक के बाद एक ऐसे कानून बनवाए जो नेहरू परिवार, नेहरू के आईडिया आफ इंडिया के विचार का विस्तार थे। सोनिया गांधी की वाहवाही, उनके आगे नतमस्तकता, उनकी अभूतपूर्व सफलताओं की जितनी तूतड़ी बज सकती थी वह तब बजी।
सत्ता का वह एक केंद्र था और उस केंद्र पर हर कोई मत्था टेकता था। वहां से काम के फरमान निकलते थे। विदेशी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति भी जब दिल्ली आता था तो सोनिया गांधी को जा कर प्रणाम करता। सोचें, याद करें कि किसी विदेशी नेता ने भाजपा, संघ परिवार के मातृ संगठन आरएसएस के सुप्रीमो मोहन भागवत के यहां जा कर यह आश्चर्य जताया हो कि आप और आपकी विचारधारा ने क्या गजब कमाल कर दिखाया!
मतलब 2004 में सत्ता आने के साथ नेहरू-गांधी परिवार ने नीतियां बनवाई, सरकार चलवाई। रीति-नीति का अपना सेटअप बना कर राज किया। उसी अनुसार सार्वजनिक विमर्श बना। नेहरू-गांधी परिवार ने चाहा तो भगवा आतंकवाद का हल्ला हुआ। बहस हुई। एनआईए जांच एजेंसी बनी। झूठे-सच्चे आरोप लगा कर साध्वी प्रज्ञा आदि को जेल में ठूंसा गया तो दुनिया में चर्चा करवा दी गई कि हिंदू आतंकवाद का खतरा मामूली नहीं है!
मई 2004 से मई 2006 के पहले दो साल और मई 2014 से मई 2016 के दो वर्ष के परिदृश्य पर सोच तुलनात्मक विश्लेषण करने बैठें तो आप चाहें न चाहें लेकिन संघ परिवार की दशा पर रोना आएगा। सोनिया गांधी ने बेखटके राज चलवाया। एक भी मुद्दे पर उनकी बदनामी नहीं हुई। क्या ऐसा पिछले 21 महीने में आरएसए याकि संघ परिवार के अनुभव से तथ्य निकलता है?
कतई नहीं।
भला क्यों?
यह लाख टके का सवाल है।
इस सवाल पर विचार करें उससे पहले विचारना चाहिए कि मोहन भागवत, उनके साथी पदाधिकारी भैय्याजी जोशी, दत्तात्रेय होसबोले या कृष्ण गोपाल आदि क्या यह बूझ रहे होंगे कि सोनिया गांधी बनाम उनके राज का क्या फर्क है? इन्हें सोनिया गांधी के राजकाज की याद भी नहीं होगी। इन्हें यह बोध नहीं है कि सोनिया गांधी के वक्त क्या हुआ था और अब सार्वजनिक विमर्श में, दिलो-दिमाग की धारणा याकि परसेप्सन में असहिष्णुता, दलित हल्लाबोल जैसी बातों से सत्ता के बावजूद हिंदू राजनीति का कैसा फलूदा बन रहा है।
हां, यह सोचना होगा कि संघ मानता है या नहीं कि वह सत्ता में आ कर और बदनाम है। इसी के चलते उसकी सोच, एजेंडे सबमें अवस, लाचारी आई हुई है। वह अपने व्यवहार और एजेंडे दोनों में लकवा खा गया है।
अपने को लगता है कि संघ बेचैन शायद कुछ हो लेकिन उसे यह बोध नहीं है कि सोनिया गांधी ने कैसे अपने राज में अपना एजेंडा, अपने आभामंडल, विचारधारा में श्रीवृद्धि की थी तो संघ परिवार उसके मुकालबे सत्ता में कैसा श्रीहीन है? कैसे अवसर टाइमपास में बदला हुआ है। संघ परिवार को बोध ही नहीं है कि भारत की सत्ता होने का क्या अर्थ है और उससे क्या कुछ नहीं किया जा सकता है!
हां, कुछ ऐसा मामला है।
इस पर कल और!