सफेद खून, काली करतूत by अख़लाक़ अहमद उस्मानी, Jansatta 2014.12.23

सफेद खून, काली करतूत

खोला अल्ताफ का वह स्कूल का महज दूसरा दिन था। पांच बरस की खोला को छुट््टी की तलब थी, ताकि वह अपनी मां से जा मिले, लेकिन उससे पहले ही आठ दरिंदे वहां आ पहुंचे। जिन एक सौ बत्तीस बच्चों को वहशी वहाबी दरिंदों ने पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में मार डाला, उनमें नर्सरी की मासूम खोला भी थी। उसके मां-बाप उन एक सौ बत्तीस वालदैन जोड़ों में शामिल थे, जिन्हें अपने बच्चों के बदन से खून में लिथड़ी पोशाक उतार कर कफन पहनाने थे। मां पुकारती रही, लेकिन अल्लाह के आठ सिपाहियों ने अपना ‘जिहाद’ पूरा करने की सनक में खोला अल्ताफ और एक दिन पहले बनी उसकी नन्हीं सहेलियों को मार डाला।

जानवर को भी खुदा ने यह समझ दी है कि अपने और इंसान के बच्चों के साथ किस तरह पेश आए, लेकिन वहाबी विचारधारा इतनी गुंजाइश नहीं देती। पेशावर में तहरीके तालिबान पाकिस्तान के वहशियों ने स्कूल के एक सौ बत्तीस बच्चों को मार डालने के बाद अपने आकाओं से पूछा कि हमने बच्चों को मार डाला है, अब आगे क्या करना है? देवबंदी तालिबानी आकाओं ने कहा कि फौजियों के आने का इंतजार करो और जब वे तुम्हारे करीब आ जाएं तो खुद को बम से उड़ा लेना। उन्होंने ऐसा ही किया। तहरीके तालिबान पाकिस्तान अपना उद्देश्य बताता है कि वह पाकिस्तान को पूरी तरह इस्लामी राज्य (या वहाबी) में बदलना चाहता है। हालांकि यह उसकी हरकतों पर नकाब है। इसी साल जून में कराची हवाई अड्डे पर टीटीपी के आतंकवादी हमले के बाद से पाकिस्तानी सेना ने टीटीपी के खिलाफ ‘जर्बे अज्ब’ नामक व्यापक युद्ध छेड़ रखा है। सेना की इस कार्रवाई में अब तक टीटीपी के बारह सौ से अधिक आतंकवादी मारे जा चुके हैं और सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान को लगभग टीटीपी से छुड़वा लिया है। पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल के बच्चों की हत्या दरअसल टीटीपी की गहरी हताशा को दर्शाती है।

तालिबान बच्चों को मार कर उन सैनिकों को दर्द देना चाहता है, जिन्होंने उसके खिलाफ ‘जर्बे अज्ब’ में हिस्सा लिया। बहुत कमजोर हो चुके टीटीपी का सरगना मुल्ला फजलुल्लाह भी कमजोर पड़ा है और गिरोह में बंटवारे और लूट के माल में हिस्सेदारी की डाकूप्रथा ने कई छोटे-छोटे नेता पैदा कर दिए हैं। इसी 2014 में टीटीपी में पांच बार बंटवारा हो चुका है। फरवरी में देवबंदी मौलाना उमर कासमी अलग हुआ। अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए बैतुल्ला मसूद के कार्यकर्ता मई में संगठन से यह कहते हुए अलग हो गए कि जिहादी अपहरण, वसूली और बेवजह बमबारी कर रहे हैं। अगस्त में टीटीपी का बड़ा आतंकवादी उमर खालिद खुरासानी ‘जमातुल अहरार’ नाम का संगठन बना कर बाहर निकल आया। उसके पीछे-पीछे पंजाबी तालिबान अलग हुआ और दो महीने पहले पेशावर और हांगू जिलों की लगभग तमाम यूनिटों ने टीटीपी को छोड़ दिया।

सबसे पहले उमर कासमी ने अलग संगठन ‘अहरारुल हिंद’ (भारत के स्वतंत्रता सैनिक) बनाया, जो बाद में ‘जमातुल अहरार’ में सम्मिलित हो गया। इतने बंटवारों और पाकिस्तानी सेना के लगातार हमलों से टीटीपी ने अपनी हताशा छिपाने के लिए सैनिकों के बच्चे मारने के नाम पर पेशावर स्कूल पर हमले को अंजाम दिया।

अफगानिस्तान सीमा पर सक्रिय टीटीपी ने खुली सीमा से बहुत फायदा उठाया है। भारत को जलाने के लिए तैयार की गई आग में पाकिस्तान खुद जल रहा है। आज पाकिस्तान सरकार और सेना को लगने लगा है कि उत्तरी पाकिस्तान हाथ से चला गया तो देश खत्म हो जाएगा। राजधानी इस्लामाबाद से उत्तरी वजीरिस्तान मात्र 425 किलोमीटर है और लगभग इतनी ही दूरी पर पाक अधिकृत कश्मीर में सक्रिय जमात-उद-दावा का खूंखार आतंकवादी हाफिज सईद अपना आतंक का धंधा चला रहा है। पाकिस्तान के लिए मुश्किल यह है कि अगर मुल्ला फजलुल्लाह और हाफिज सईद एक हो गए तो देश का क्या होगा?

पाकिस्तान मध्य एशिया की इस्लामी आतंकवाद की फैक्ट्री के रूप में पहले ही बदनाम है। अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान और कश्मीर में आतंकवाद के लिए वहीं माल तैयार होता है। चीन के जिनजियांग और पश्चिम एशिया में इराक और सीरिया के आतंकवाद में पाकिस्तान बराबर का शरीक है। अपने बेटों के बाद मुल्क के मासूमों की लाशों का इतना बोझ क्या पाकिस्तान उठा पाएगा? मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड जकीउर्रहमान लखवी और हाफिज सईद के खिलाफ इतने सबूत पेश करने के बावजूद पाकिस्तान आतंकवाद से निपटने के लिए दोहरे मापदंड अपनाता आ रहा है। ऐसा लगता है कि वह भी अच्छे और बुरे आतंकवाद को साथ लेकर चलना चाहता है, जबकि ऐसा करके वह उसी स्थिति में पहुंच जाएगा जहां आज इराक की अवाम है। वहाबी आतंकवादी ऐसा क्यों करते हैं, उन्हें कैसे इस बात के लिए तैयार कर लिया जाता है कि वह अल्लाह का सिपाही है और सही-गलत का फैसला वही करेगा और जो उसकी बात नहीं माने वह मरने के योग्य है।

इस्लामी इतिहास में नकली इस्लाम या वहाबियत के संस्थापक इब्न अब्दुल वहाब नज्दी पर यह पूरी कुत्सित विचारधारा खड़ी है। उसी ने अपनी पुस्तक ‘किताबत तौहीद’ यानी ‘एकेश्वरवाद की पुस्तक’ में यह समझाया कि जो उसकी विचारधारा को नहीं मानता उसे मरना होगा। इब्न अब्दुल वहाब ने ‘वाजिबुल कत्ल’ यानी ‘हत्या के लिए अनिवार्य’ पारिभाषिक शब्द दिया था। भारत में इस्माइल देहलवी नाम के वहाबी विचारक ने खुल कर इब्न अब्दुल वहाब का समर्थन किया था। भारत में ही मौलाना अबुल आला मौदूदी की नफरत भरी जबान और सोच में इब्न अब्दुल वहाब का अक्स है।

दुनिया की वहाबी फिक्र को भारत के मदरसों ने बहुत बौद्धिक मसाला दिया है। इस्लामी और उर्दू किताबों के बाजार में, खासकर वहाबी विचारधारा की किताबें मामूली रकम या मुफ्त में मिल जाती हैं। भारत के कई प्रकाशन तो सिर्फ ये किताबें छापने के लिए पेट्रो डॉलर पर खड़े किए गए हैं। कितनी शर्मनाक बात है कि नफरत के इन सौदागरों की किताबें भारत के मशहूर मदरसों में ही नहीं, विश्वविद्यालयों के इस्लामी अध्ययन के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं।

पाकिस्तान तालिबान ही नहीं, वहाबी फैक्ट्री से निकला हर शख्स दबी जुबान में ही सही, पेशावर में बच्चों के कत्ल को उचित ठहराने की कोशिश कर रहा है। करीब चौदह सौ साल पहले करबला के मैदान में पैगंबर हजरत मुहम्मद के नवासे इमाम हजरत हुसैन, उनके भाई हजरत मुसलिम के दो मासूम बेटों, इमाम हुसैन की बहन हजरत जैनब के मासूम बच्चे औन और मुहम्मद तथा हुसैन के छह महीने के बेटे अली असगर के गले पर तीर मार कर जालिम यजीद की फौज ने शहीद कर दिया था। इमाम हुसैन के कुनबे से गिरफ्तार की गई महिलाओं को दमिश्क में यजीद के दरबार में पेश किया गया तो यजीद ने कहा था कि उसने पैगंबर मुहम्मद के घर वालों से बद्र की जंग का बदला ले लिया है। यह वही यजीद है जो खुद को मुसलमान कहता था, जिसने मदीना की मस्जिद में जानवर बंधवाए थे और मुसलमानों के पवित्र स्थल काबा को आग लगा दी थी।

आज की पूरी वहाबी विचारधारा यजीद को जायज ठहराती है और इमाम हुसैन के कत्ल को राजनीतिक शत्रुता का परिणाम। यही कारण है कि दुनिया में जहां-जहां इस्लामी हुकूमत के नाम से वहाबी और ताकफिरी हुकूमत है वहां मुहर्रम का मातम मनाए जाने पर प्रतिबंध है। आज के वहाबियों का हीरो कुत्सित यजीद और उसकी सेना द्वारा पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के घरों के बच्चों के कत्ल को जायज मानते हैं, तो इक्कीसवीं सदी में आज यजीद के पैरोकार आम बच्चों के कत्ल को क्यों नहीं उचित ठहराएंगे?

जिसकी जहां आस्था होती है, उनके चरित्र भी वैसे ही होते हैं। यही कारण है कि लखनऊ में हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत पर शिया और आम सूफियों के शोक जाहिर करने वालों से वहाबी चिढ़ते हैं, उनके जुलूस पर पथराव करते हैं।

लेखक और चिंतक शौकत भारती बताते हैं कि कश्मीर, पश्चिम बंगाल और भारत के दूसरे हिस्सों में हुसैन के मुसलमान आशिकों पर पेट्रो डॉलर से पल रहे आतंकी यजीद के बदमाशों की हरकत और उसकी मंशा को समझने की किसी को फुर्सत ही नहीं है। बात थाने तक पहुंच जाए तो हमारी पुलिस सऊदी और कतरी रियाल के चक्कर में सारे अधिकार वहाबियों को दिलवा देती है। इस वैचारिक फर्क को हिंदी और अंगरेजी मीडिया समझता ही नहीं और शिया-सुन्नी विवाद या दंगे की शक्ल में खबरें चलाता रहता है। इन पत्रकारों का भी वही हाल है, जो भारतीय खुफिया एजेंसियों और पुलिस का है। इन मामलात की समझ रखने वाले उर्दू और हिंदी मीडिया के वहाबी पत्रकार बेहद संगठित हैं। यही मीडिया आइएसआइएस के आतंकवादियों को ‘जंगजू’ या ‘चरमपंथी’ मानता है, आतंकवादी नहीं।

मीडिया, थिंक टैंक, नौकरशाही, पुलिस और अदालत में वहाबी फिक्र इतनी गहरी हो चुकी है कि भारत का आम मुसलमान सड़कों पर निकल कर अपनी पीड़ा बयान कर रहा है। भारत के सबसे प्रतिष्ठित युवा सूफी नेता सैयद बाबर अशरफ वहाबियत के इस संस्थानीकरण के विरुद्ध देश में दस से ज्यादा महारैलियां कर चुके हैं, जिनमें अंदाजन एक करोड़ भारतीय मुसलमानों ने वहाबी फिक्र के विरुद्ध अपने गुस्से का इजहार किया। बाबर अशरफ का कहना है कि वहाबी एजेंडा तो थानों और वक्फ बोर्डों से चल रहा है। थाने पैसे से मैनेज हो जाते हैं और वक्फ बोर्डों की मस्जिदों में सऊदी अरब की वहाबी फिक्र का इमाम रखवाने के साथ ही धंधा चोखा चलने लगता है।

इन मस्जिदों में यजीद के यशगान चलते हैं। दिल्ली में कुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन के पास पीरोंवाली मस्जिद पर वहाबी कब्जे के खिलाफ सैयद बाबर पांच साल से लड़ रहे हैं, लेकिन दिल्ली पुलिस का भ्रष्ट तंत्र वक्फ के जायज कागजात होने के बावजूद रियाल के चक्कर में वहाबी कब्जा बरकरार रखना चाहता है। यह तो एक बानगी है। देश की लाखों मस्जिदों का निजाम वहाबियों ने पुलिस और वक्फ के भ्रष्ट तंत्र से इसी तरह हथियाया है।

आज जहां पाकिस्तान पहुंच गया है उसने भी जनरल जियाउल हक के जमाने में वक्फ और मस्जिदों की इमामत को बहुत छोटी चीज समझा था। हमें सामान्य शिया-सुन्नी विवाद के आगे के मसाइल भी समझने होंगे, ताकि किसी दिन यजीद के पैरोकार हुसैन के पैरोकारों को कत्ल करने कम से कम ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के घर तक न पहुंचें।