स्मृति इरानी के नाम खुला पत्र
स्मृति जी, लोक सभा में आपका भाषण सुना। ज़ोरदार अदायगी थी, ज़बरदस्त तेवर थे। ख़ूब गरजीं आप। लेकिन मुझे दुःख हुआ। दुःख हुआ क्यूँकि मुझे आपके भाषण में युद्धघोष का स्वर सुनाई दिया। दुःख हुआ क्यूँकि मैं मानता हूँ कि जब देश में जनता उद्विग्न हो, आक्रोशित हो, तब संसद में मंत्री का भाषण ज़ख़्मों पर रुई के नरम फ़ाहे जैसा होना चाहिए।
लेकिन आप ने ऐसा नहीं किया । आप ने अपनी कला का पूरा इस्तेमाल ख़ुद को निर्दोष साबित करने में कर दिया, जबकि राजधर्म का अर्थ तो सबसे पहले देश में अमन शांति पैदा करना है ।
देश में छात्रों का एक बड़ा वर्ग उद्वेलित है। लेकिन उनकी चिंताओं पर आपने एक शब्द नहीं कहा । बस कही तो अपनी बात और वह भी इस अन्दाज़ में कि जो आपके तर्क से सहमत ना हों, वो आपके तेवर तो कम से कम समझ ही जाएँ ।
कन्हैया जेल में है, देशद्रोह के आरोप में । लेकिन यह नहीं बताया कि आख़िर देशद्रोह था क्या । आपने वो नारे पढ़ कर सुनाए जो उसकी मौजूदगी में लगे । लेकिन वह तो सिर्फ़ मौजूद था । आपने यह नहीं बताया कि पूरे सरकारी तंत्र और इंटेलिजेन्स के तामझाम के बावजूद नारे लगाने वाले लोग कौन थे, कहाँ हैं और अभी तक पकड़े क्यूँ नहीं गए ।
और हाँ, आपने आरोप सुनाया कि jnu में सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए बुकिंग की गयी थी लेकिन राजनीतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया । ज़रा इनका फ़र्क़ rss से भी पूछ लें, स्वयं आपके यहाँ इस मामले में बहुत महारत हासिल है ।
आपने किताबों से पढ़ कर सुनाया कि कैसी कैसी बातें शिक्षकों को सिखायी जा रही हैं। पोस्टरों का ज़िक्र किया जो हिंदू देवी के ख़िलाफ़ थे । आपको यह सब आपत्तिजनक लगा होगा, मुझे भी लगता है, लेकिन इनसे कन्हैया देशद्रोही कैसे हो गया? आपने नहीं बताया!
आपने ठीक कहा कि इन मुद्दों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए । मैं भी सहमत हूँ । लेकिन यह भी तो समझा दीजिए कि abvp की शिकायतों पर हुई आपकी तमाम कार्यवाही अराजनीतिक कैसे हुई? क्या आपकी सरकार ने प्रशासन और सत्ताधारी राजनैतिक संगठनों का फ़र्क़ समाप्त कर दिया है?
मैंने देखा कि रोहित वेमुला की बात करते करते आप द्रवित हो उठी । माँ के दिल का वास्ता दिया । किसी बेटे के जाने का दर्द महसूस किया । लेकिन आप ने यह नहीं बताया कि जिसे आपके मंत्री ने देशद्रोही कहा था, वह मृत्यु उपरांत देश का बेटा कैसे हो गया?
आपने यह भी तो नहीं बताया अगर तमाम वैचारिक मतभेद के बावजूद रोहित देश का बेटा हो सकता है, आपका ह्रदय उसके लिए द्रवित हो सकता है, तो फिर उसी की सोच रखने वाले हज़ारों हज़ार छात्र जो सड़कों पर उतरे हैं, उनके लिए आपकी इतनी बेरुख़ी क्यूँ है कि आप उनसे वार्ता तक नहीं कर रही, पूरे भाषण में उन्हें सम्बोधित तक नहीं किया, बल्कि पूरे समय उनके प्रति आपकी युद्ध भंगिमा ही नज़र आती रही ।
क्या ये हज़ारों बच्चे देश के बेटे बेटियाँ नहीं हैं? क्या ये सभी देश हित के ख़िलाफ़ हैं? मानता हूँ कि आपके बाद देश के गृह मंत्री बोले तो उन्होंने कहा कि वह jnu को देश की उत्कृष्ट यूनिवर्सिटी मानते हैं । लेकिन न आपने , न ही उन्होंने बताया कि आपके ही नेता और सोशल मीडिया सैनिक उस यूनिवर्सिटी को क्यूँ बदनाम करने पर तुले हैं? आप और आपकी सरकार उन्हें रोकती नहीं है। आप यह नहीं कह सकतीं कि आप लोग इन सोशल मीडिया सैनिकों को नहीं जानते क्यूँकि देश के प्रधानमंत्री ने पिछले साल ख़ुद ही उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर उनका आभार व्यक्त किया था और हौसला बढ़ाया था । संसद में तारीफ़ और बाहर आक्रमण का यह तरीक़ा बेचैन करने वाला है, क्यूँकि एक कहावत की याद दिलाता है - मुँह में राम, बग़ल में छुरी । देश के मंत्रियों के संदर्भ में ऐसी कहावत का याद आना मुझे अंदर तक हिला देता है, डरा देता है ।
यह डर इसलिए भी है क्यूँकि आपने या आपके किसी साथी मंत्री ने इसी मामले पर बोलते हुए कोर्ट परिसर में वकीलों के उत्पात पर एक शब्द नहीं कहा, मानो ये कोई बड़ी बात ही नहीं । अगर इंडिया गेट के पास स्थित कोर्ट परिसर में ऐसी गुंडागर्दी कोई चिंता नहीं जगाती, तो दूर दराज़ के इलाक़ों में क्या हो सकता है, क्या इसकी कोई चिंता सरकार को है? या फिर अगर मैं सही समझ रहा हूँ तो देश भर में आप की सरकार कोई संकेत दे रही हैं?
आपने कहा कि देश के अधिकांश VC पिछली सरकार के चुने हुए हैं और अगर एक भी VC उनपर RSS के एजेंडा लागू करने का आरोप लगाए तो आप इस्तीफ़ा दे देंगी। पर शायद आप भूल गयी कि आपकी कार्यप्रणाली के ख़िलाफ़ मशहूर परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर IIT मुंबई के चेयरमेन के पद से और शिवगाओंकर IIT दिल्ली के निदेशक के पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। अब याद आ गया है तो क्या अब आप इस्तीफ़ा देंगी ?
हम जानते हैं कि आप न तो इस्तीफ़ा देंगी ना ही हज़ारों हज़ार आंदोलनकारी छात्रों से कोई बात करेंगी । क्यूँकि अतिरेक से परे, आपकी मंशा शिक्षा के विकास की नहीं है, विश्वविध्यालयों को पनपाने की नहीं है, बल्कि उन्हें क़ब्ज़ाने की है ।
आपका भाषण इसीलिए मुझे दुखी कर गया । वह शब्द और वह तेवर 125 करोड़ देशवासियों की प्रतिनिधि होने की ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं कराते, क्षोभ और आक्रोश को शांत करने का प्रयास नहीं करते, बल्कि सुनने वालों को सत्ता की ताक़त और सत्ता के क्रोध की जुगलबंदी से ख़ौफ़ज़दा करने की कोशिश करते नज़र आते हैं।