बुद्धि और बिना बुद्धि का फर्क

कल मैंने सोनिया गांधी की सत्ता के पहले दो साल और सत्ता में आरएसएस के इन 21 महीनों के अनुभव की तुलना की थी! सोनिया गांधी ने खटके से, वाहवाही में राज किया तो ठीक विपरीत संघ 21 महीनों में बदनाम हुआ, रक्षात्मक रहा। अपने किसी कोर एजेंडे को मूर्त रूप नहीं दे पाया। क्यों? वजह बौद्धिकता, इंटलेक्ट का टोटा है। पूछ सकते हैं भला सोनिया गांधी में बौद्धिकता, इंटलेक्ट की कैसे बात? ऐसा सोचना मूर्खतापूर्ण है। इसलिए कि नेहरू-गांधी परिवार अपने साथ नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया को लिए हुए है। सोनिया गांधी ने सत्ता में आते ही यदि अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनाई तो विचारवान जमात का उसमें बौद्धिक बल था। अकुणा रॉय, ज्या द्रेज से अमर्त्य सेन तक की लंबी चौड़ी जमात ने सूचना अधिकार, मनरेगा को बनवाया तो पीछे गहरा बौद्धिक समर्थन था।
ठीक विपरीत बौद्धिक बल में संघ शून्य है। नरेंद्र मोदी शून्य हैं। सोनिया गांधी, कांग्रेस और नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया के पोषण के लिए हर क्षेत्र में पचास तरह के बुद्धिजीवि मिलेगे। आप इन बुद्वीजीवियों से असहमत हो सकते है लेकिन इनके बौद्विक बल को खारिज नहीं कर सकते। कांग्रेस के पास धर्मनिरपेक्षता के हजार पैरोकार बुद्धिजीवी हैं तो दलित उत्थान, आदिवासी कल्याण, जन अधिकार, आर्थिक सुधारों के भी असंख्य बौद्धिक चेहरे बतौर सिद्धांतकार उपस्थित कर देगी। कई तरह के थिंक टैंक व कई तरह की लॉबियों से लैस कांग्रेस। इसलिए सोनिया गांधी ने मजे से एनएसी बनवाई। उससे वैचारिक विमर्श बनवाया और सूचना अधिकार, मनरेगा जैसी भारी भरकम योजनाएं बनवा डाली। आप इनमें हजार कमियां निकाल सकते हैं लेकिन यह तथ्य है कि इन्हें सदी की, दशक की योजना, दुस्साहसी जनहितकारी फैसले बताए गए। इन पर पोजिटिव विमर्श बना। यह सब हुआ एक बौद्धिक उर्वरता के चलते।
संघ और संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ऐसा कुछ नहीं कर सके। वे अपने 21 महीने सोनिया गांधी जैसे कनवर्ट नहीं करवा सके। मतलब अपने एजेंडे याकि मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता, कश्मीर के दर्जे आदि में से एक काम नहीं करवा पाए। आप भी याद करें कि आरएसएस ने बतौर मातृ संगठन, वैचारिक संगठन, विचारधारा में इन 21 महीनों में क्या उस पैमाने का कोई करवाया है जैसे सोनिया गांधी ने मनमोहनसिंह से शुरुआत के दो साल में करवाए थे? उलटा हुआ। आरएसएस के लिए ये 21 महीने एक तरह से मनमोहनसिंह के आखिरी दो साल की तरह गुजरे हैं। बदनामी ही बदनामी और बार-बार, बात-बेबात धुनाई!
सचमुच 2004-2006 के सोनिया गांधी-मनमोहनसिंह के वक्त और अब के वक्त में कई बुनियादी फर्क हैं। तब सोनिया गांधी का पॉवर सेंटर था। उनके साथ बौद्धिकों का बल था। सेकुलर मीडिया का दम था। डा. मनमोहनसिंह का प्रशासनिक अनुभव था। इन चारों के पीछे मूल सत्व-तत्व नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया याकि वैचारिकता, बौद्धिकता, इंटलेक्ट का आधार था। क्या संघ-मोदी के सेटअप में ऐसा कोई आधार है? कतई नहीं।
तभी सोनिया गांधी का जहां काम हुआ, नाम हुआ वही अभी तक तो आरएसएस के खाते में न माया है और न राम! यों कहने को नरेंद्र मोदी व अमित शाह कहते हैं, सोचते हैं कि भारत को कांग्रेस मुक्त कराना है लेकिन इस मुक्ति के लिए वेकल्पिक बौद्विकता कितनी जरूरी है, इसका इन्हें ख्याल ही नहीं है। आप विचारधारा के नाम का चोगा पहने हुए हैं पर हकीकत में न विचार है न आईडिया है और न बौद्धिकता। यह बेसिक समझ भी नहीं है कि यदि 21वीं सदी है तो 21वीं सदी के मुहावरों में बात करनी होगी। मुहावरे आधुनिक, चेहरे आधुनिक होने चाहिए। यदि आपको गोमांस, बीफ पाबंदी लानी है तो अमेरिकी रिसर्च के इन तथ्यों के मुहावरे में बात कहनी होगी कि बीफ की 70-80 प्रतिशत सरंचना मल तुल्य है। ऐसा बताने वाला चेहरा साक्षी महाराज का नहीं बल्कि अरुण जेटली या डा. स्वामी का होना चाहिए। बहुसंख्यक हिंदू की आस्था की बातों को क्या आज के मुहावरों, जुमलों, चेहरों के बौद्धिक बल से पुश नहीं कराया जाना चाहिए?
पर संघ की, नरेंद्र मोदी की और हम हिंदुओं की दिक्कत कुएं के मेंढकों की टर्र-टर्र है। आप खुर्दबीन ले कर संघ, नरेंद्र मोदी के दिमाग को खूब गहराई से जांचे तब भी इस पहेली को नहीं बूझ सकेंगे कि क्योंकर इन्होंने स्मृति ईरानी को उस शिक्षा, मानव संसाधन मंत्रालय में बैठाया जो बौद्धिक बल, बौद्धिकता का बीज भंडार है। स्मृति ईरानी का शिक्षा और एक व्यवसायी चिकित्सक महेश शर्मा का संस्कृति मंत्री होना प्रमाण है कि संघ-मोदी बौद्धिकता को विचारधारा व सत्ता की प्राणवायु नहीं मानते हैं। तभी ये स्मृति ईरानी से शिक्षा का भगवाकरण होता देख रहे हैं तो अरुण जेटली को अमर्त्य सेन, अरुणा राय, ज्यां द्रेज, जयराम रमेश, चिदंबरम, प्रणब, मनमोहनसिंह सब के कुल जोड़ के बराबरी वाला समर्थ अर्थशास्त्री, वित्त मंत्री, विचारक माना जा रहा है। उनसे आर्थिकी का कायापलट देख रहे हैं!
ये जो देख रहे हैं, यह इनकी सत्ता में होने से बनी आत्ममुग्धता है। इनका एक ही ख्याल है कि सत्ता में होना बड़ी बात है। सत्ता व सिस्टम से सब सधेगा। नरेंद्र मोदी का बैठना हिंदू राष्ट्र है तो स्मृति ईरानी का बैठना भगवाकरण है!
अपना मानना है बिना बौद्धिक बल, बौद्धिक खाद-पानी, थिंक टैंक के संघ और उसकी विचारधारा की सत्ता जम ही नहीं सकती। आजादी के बाद भारत जैसा बना है वह तब तक नए वैकल्पिक मॉडल में ढल नहीं सकता, बदल नहीं सकता जब तक संघ अपना बौद्धिक कुंभ न बनाए।
पर आरएसएस को शायद बुद्धि से एलर्जी रखने का श्राप है।
कैसे?
इस पर कल बात करेगें।