
हिंदुत्व के विपरीत, नाथ योगियों ने अतीत में अपनी समावेशी धार्मिक सोच पर बल देते हुए शक्ति प्राप्त की ~ सी मारेवा-करवॉस्की
गोरखपुर के विवादास्पद दक्षिणपंथी विचारक, योगी आदित्यनाथ की उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी को कई लोग मन से नकार चुके है। यद्यपि उनका राजनीतिक उत्कर्ष कोई बहुत आश्चर्यजनक नही है। सरकार के कामकाज में नाथ समुदाय की भागीदारी शायद ही नई बात है, क्योंकि नाथ योगियों का सदियों से दक्षिण एशियाई राजनीति में घोर प्रभाव रहा हैं। उल्लेखनीय बदलाव सिर्फ उस तरीके में आया है जिसमें गोरखपुर का नाथ समुदाय अपनी पहचान को समझता है और उसकी अभिव्यक्ति करता है। आदित्यनाथ की हिंदुत्व संबन्धी बयानबाजी के ठीक विपरीत, नाथ योगियों ने अतीत में अपनी समावेशी धार्मिक सोच पर बल देते हुये शक्ति अर्जित की।
13 वीं शताब्दी के आसपास, योगियों के एक समूह ने गुरू गोरखनाथ की शिक्षाओं और कथाओं पर केन्द्रित एक समुदाय बनाना आरंभ कर दिया था। अपनी तपस्वी उपलब्धियों और योगिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध नाथ (जिन्हें कनफट के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि कान में बड़े कुण्डल पहनने की परंपरा के कारण उनके कान फट जाते है) प्रारंभिक आधुनिक भारत में बहुत लोकप्रिय थे।
मुस्लिम, हिंदू, बौद्ध और जैन समुदायों के साथ अतिच्छादित और प्रतिस्पर्धी होते हुये इन योगियों ने एक अदृश्य ईश्वर पर विश्वास किया-एक ऐसा विश्वास जो उन्हें विभिन्न धार्मिक परंपराओं के बीच एकदूसरे की धार्मिक सीमाओं से जोड़ता था। गोरखबानी, या गोरखनाथ के कथन प्रारंभिक आधुनिक समुदाय की खुदगर्जी की अवधारणा पर प्रकाश डालते है।
16 वीं शताब्दी से नाथ सम्प्रदाय के सर्वाधिक प्रभावशाली रहे ग्रन्थ गोरखबानी के अनुसार, इस समुदाय ने स्वयं को न तो हिन्दू और न ही मुस्लिम के रूप में परिभाषित किया बल्कि स्वयं के हिन्दू और मुस्लिम न होकर जोगी के रूप में अपने को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया। हालांकि हिंदू और इस्लामी दोनों विचारों पर निर्मित ग्रन्थ के धार्मिक सिद्धांतों को वे विरोधाभासी तरीके से स्वीकार करते हैं और दोनो ही समुदाय की शिक्षाओं को अस्वीकार करते हैं।
हिंदू देवताओं और मुस्लिम पेगंबरों के महत्व को स्वीकार करते हुए एवं पंडितों और पीर के ज्ञान के साथ-साथ, गोरखबानी द्वैतवाद की श्रेष्ठता के बारे में बताती है। गोरखबानी बताती है कि किस प्रकार प्रारंभिक आधुनिक इस सम्प्रदाय ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों विचारों को गले लगाया जबकि अंतिम सत्य को प्राप्त करने के लिए वे दोनों को अपर्याप्त मानते थे। नफरत भरे शब्दों में नही, लेकिन गोरखबानी कहती है कि वेद, शास्त्र, या कुरान में पूर्ण ज्ञान नहीं है। केवल सबद, जो गोरख का पवित्र वचन है,- ब्रह्मांड के रहस्यों के माध्यम से भक्तों को वास्तव में मार्गदर्शन कर सकता है।
‘उतापाती हिन्दू जरानन जोगी अकाली पारी मुसलमानानिन
ते राज चुनो हो काजी मुल्ला ब्रह्मा विष्णु महादेव मानी
मान्या सबद सुकाया दण्ड, निहाकाई राजा भरतरी परछाई गोपीचन्द
निहाकाई नरवाई भाई निरादन्द, परछाई जोगी परमानन्द।’
(आप जन्म से हिंदू हैं, ज्ञान द्वारा मुसलमान, और ध्यान द्वारा योगी। ओह, काजी और मुल्ला, उस रास्ते को स्वीकार करो जिसे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव पहले ही स्वीकार कर चुके हैं। जिसने भी गोरख के शब्द ‘सबद’ को स्वीकार कर लिया उसका द्वंद्व समाप्त हो गया है। सबद के प्रति दृढ़ आस्था के माध्यम से ही भरतरी राजा बनाया गया था, इसी के ज्ञान से गोपीचंद ने सत्य का अनुभव किया। इसकी दृढ़ता के साथ राजाओं ने द्वंद्व को पार किया और इसी के ज्ञान से योगियों को परम आनन्द की प्राप्ति हुई।)
द्वेतवाद पर उनकी श्रेष्ठता जिसके बारे में गोरखबानी कहती है, वह न सिर्फ योगियों के परम आनंद में बल्कि प्राकृतिक तत्वों को नियंत्रित करने की उनकी क्षमता में भी प्रकट होती थी। ऐसी व्यापक मान्यता है कि वे अपनी देह पर विजय प्राप्त कर लेते थे तथा उनका जीवन और मृत्यु, प्राकृतिक शक्तियों और दूसरों की मानसिक शक्तियों पर भी अधिकार था। संक्षेप में, द्वंद्व से ऊपर उठने की उनकी क्षमता ने उन्हें दुनिया में ईष्वर के समकक्ष बना दिया। इसने नाथ सम्प्रदाय को भारत के विभिन्न समुदायों के लिए आदर्श पूर्व-आधुनिक सत्ता के मध्यस्थ के रूप में तैयार किया। दूसरे लोग न सिर्फ उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करते थे बल्कि वे उनकी अलौकिक क्षमताओं का अपने जीवन में भी प्रयोग करने को उत्सुक रहते थे।
राजनीतिक शक्ति
दिल्ली सल्तनत के दौरान जब नाथ योगी अपनी पारलौकिक क्षमताओं के लिए जाने जाते थे, वे मुगल शासन (1526-1857) के दौरान देशी राजाओं के साथ अपना राजनीतिक प्रभाव हासिल करने में लगे रहे। मुगल शासकों और हिंदू राजाओं दोनों ने इस सम्प्रदाय को भूमिदान करके और अन्य अधिकार देकर संरक्षण प्रदान किया और उसके बदले में उनसे पारलौकिक मदद, आशीर्वाद और अमृतरस चाहा। यद्यपि नाथ योगी और सत्तारूढ़ संभ्रांत वर्ग के बीच संबन्ध को दर्शाने के लिये साहित्यिक और ऐतिहासिक सामग्रियों की कोई कमी नहीं है। जाखबार के योगियों के मुगल शासकों के साथ रिश्तों को दर्शाने के लिये दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद है।
16 वीं शताब्दी के प्रारंभ में अकबर के समय से जाखबार योगियों को राजवंश की दीर्घायु के आशीर्वाद के बदले मुगल साम्राज्य द्वारा भूमि और राजस्व अनुदान में दिया गया था। मठ में संरक्षित दस्तावेज बताते हैं कि मुगल सम्राटों द्वारा जखबार योगियों की अलौकिक क्षमताओं के कारण उनका भव्य सत्कार किया जाता था। अधिक दिलचस्प यह है कि औरंगजेब ने भी उन्हें अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न मानकर उन्हे सर्वोच्च रूप से सम्मानित किया था। ओरंगजेब ने न सिर्फ अपने समूचे शासनकाल में इस सम्प्रदाय को संरक्षण देना जारी रखा, बल्कि उन्होने जाखबार मंदिर के प्रमुख के साथ निरंतर मित्रवत संबन्ध भी रखे। औरंगजेब द्वारा एक उपचारित पारद (अमरता प्राप्त करने के लिये उपयोग किया जाने वाला अलौकिक तत्व) भेजने हेतु मठ को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा गया था, जो आज भी मौजूद है।
इसी तरह नेपाल के पृथ्वी नारायण शाह और जोधपुर के मान सिंह भी नाथ योगियों और उनकी शक्तियों के अनुयाई थे। दोनों राजाओं केइस सम्प्रदाय के साथ विशेषकर अपने उत्तराधिकार की अपनी लड़ाई के दौरान घनिष्ठ संबन्ध रहे और उन्होने अपने शासन का श्रेय नाथ सम्प्रदाय को दिया। फलस्वरूप राजाओं ने भी इस सम्प्रदाय को भौतिक धन और उनके प्रति वफादारी दर्शाकर अपना ऋण चुकाया। शाह ने न केवल इस सम्प्रदाय को उनके मठ निर्माण और मठ के लिये सहायता हेतु आवश्यक धन दिया बल्कि उन्होंने उन्हें राजनीतिक आश्रय भी प्रदान किया। मान सिंह, जालौर में नाथ योगियों के प्रति इतने समर्पित थे कि 40 से अधिक वर्षों तक उन्होंने इस सम्प्रदाय को जमीन दी, मंदिर बनवाये और राज्य के राजस्व का दसवां हिस्सा भी उन्हे भेंट किया।
हालाकि, आधुनिकता के आगमन, भक्ति की लोकप्रियता, नव-हिंदू समूहों के उदय, और सीमाओं तथा समानताओं के बीच दृढ़ विभाजन ने नाथ योगियों के राजनीतिक क्षेत्र में महत्व को कम कर दिया। 19वीं सदी के मध्य तक, नाथ योगी उन अधिकांश समुदायों से बड़े पैमाने पर अनुपस्थित थे जिनमें पहले वे सत्ता में हुआ करते थे। उन्हे अंग्रेजों द्वारा धूर्त और ढोंगी घोषित कर दिया गया और वे सत्ता में अपने पदों को छोड़ने को विवष हो गये। वास्तव में, 19वीं शताब्दी में जोधपुर के नाथ योगियों को वस्तुतः ब्रिटिष शासन द्वारा शहर से खदेड़ दिया गया।
अगले 80 सालों तक उत्तर भारत में नाथ सम्प्रदाय के बारे में थोड़ा ही सुनने को मिला और गोरखपुर के योगियों से भी इस बारे में कम ही सुना गया जो ऐतिहासिक रूप से अब उतने राजनीतिक नही थे। यद्यपि कुछ नाथ योगियों द्वारा अपनी योगिक शक्तियों का दावा लगभग एक सदी तक निरंतर किया जाता रहा जब तक कि इस सम्प्रदाय ने अपनी पूरी ताकत को नही खो दिया। इसके बाद यह सम्प्रदाय महंत दिग्विजय नाथ के आगमन तक शक्तिहीन बना रहा। महंत दिग्विजयनाथ (इनके उत्तराधिकारी महन्त अवैद्यनाथ थे जिनसे महंत आदित्यनाथ को गोरखपुर मठ उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ) ने स्पष्टतया हिन्दू सम्प्रदाय के रूप में इसकी पहचान को फिर से बनाना शुरू किया और इनकी राजनीतिक शक्ति फिर से बढ़ने लगी।
1920 के दशक में गोरखनाथ की द्वेतवाद की श्रेष्ठता की शिक्षाओं को एवं हिन्दू तथा मुस्लिम से परे अपनी पहचान बनाये रखने की शिक्षाओं का अनादर करते हुये गोरखपुर में गोरखनाथ मंदिर के नेताओं ने खुद को विषेष रूप से हिन्दू के रूप में पुनस्र्थापित किया। 20 वीं सदी के सांप्रदायिक तनाव का फायदा उठाकर मंदिर के इन नेताओं ने अपनी एक नई पहचान बनाई है जो हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करती है। उन्होने आधुनिक युग में अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को पुनः हासिल कर लिया हैं, जबकि वे अपनी वैचारिक निरंतरता के जारी रहने की बात करते है। उनका यह दोहरा चरित्र इस सम्प्रदाय के बहुलवादी समावेशि इतिहास को खारिज करता है।
‘हिन्दू ध्यावहि देहुरा, मुसलमानना मसिता।
योगी ध्यावहि परम्पदा, जहा देहुरा न मसिता।
हिंदू अखाई रामम कुन, मुसलमानम खुदाई
योगी अखाई अलक कुन तहां राम अचाई ना खुदाई।’
हिंदू मंदिरों में प्रार्थना करते हैं। मुसलमान मस्जिद में दुआ करते है। योगी परम वास्तविकता में पूजा करते हैं, जहां न मंदिर है और न ही मस्जिद। हिन्दू राम की प्रशंसा करते हैं। मुस्लिम खुदा की प्रशंसा करते हैं। योगियों ने उस अवर्णनीय की प्रशंसा की, जो राम और खुदा से परे है।